Natasha

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राजा की रानी

एक दिन सुबह स्वामी आनन्द आ पहुँचे। रतन को यह पता न था कि उन्हें आने का निमन्त्रण दिया गया है। उदास चेहरे से उसने आकर खबर दी, “बाबू, गंगामाटी का वह साधु आ पहुँचा है। बलिहारी है, खोज-खाजकर पता लगा ही लिया।”


रतन सभी साधु-सज्जनों को सन्देह की दृष्टि से देखता है। राजलक्ष्मी के गुरुदेव को तो वह फूटी ऑंख नहीं देख सकता। बोला, “देखिए, यह इस बार किस मतलब से आया है। ये धार्मिक लोग रुपये लेने के अनेक कौशल जानते हैं।”

हँसकर कहा, “आनन्द बड़े आदमी का लड़का है, डॉक्टरी पास है, उसे अपने लिए रुपयों की जरूरत नहीं।”

“हूँ, बड़े आदमी का लड़का है! रुपया रहने पर क्या कोई इस रास्ते पर आता है!” इस तरह अपना सुदृढ़ अभिमत व्यक्त करके वह चला गया। रतन को असली आपत्ति यहीं पर है। माँ के रुपये कोई ले जाय, इसका वह जबरदस्त विरोधी है। हाँ, उसकी अपनी बात अलग है।”

वज्रानन्द ने आकर मुझे नमस्कार किया, कहा, “और एक बार आ गया दादा, कुशल तो है? दीदी कहाँ हैं?”

“शायद पूजा करने बैठी हैं, निश्चय ही उन्हें खबर नहीं मिली है।”

“तो खुद ही जाकर संवाद दे दूँ। पूजा करना भाग थोड़े ही जायेगा, अब वे एक बार रसोईघर की तरफ भी दृष्टिपात करें। पूजा का कमरा किस तरफ है दादा? और वह नाई का बच्चा कहाँ गया- जरा चाय का पानी चढ़ा दे।”

पूजा का कमरा दिखा दिया। रतन को पुकारते हुए आनन्द ने उस ओर प्रस्थान किया।

दो मिनट बाद दोनों ही आकर उपस्थित हुए। आनन्द ने कहा, “दीदी, पाँचेक-रुपये दे दो, चाय पीकर जरा सियालदा बाजार घूम आऊँ।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “नजदीक ही एक अच्छा बाजार है आनन्द, उतनी दूर क्यों जाओगे? और तुम ही क्यों जाओगे? रतन को जाने दो न!”

“कौन रतन? उस आदमी का विश्वास नहीं दीदी, मैं आया हूँ इसीलिए शायद वह छाँट-छाँटकर सड़ी हुई मछलियाँ खरीद लायेगा।” कहकर हठात् देखा कि रतन दरवाजे पर खड़ा है। तब जीभ दबाकर कहा, “रतन, बुरा न मानना भाई, मैंने समझा था कि तुम उधर चले गये हो, पुकारने पर उत्तर नहीं मिला था न!”

राजलक्ष्मी हँसने लगी, मुझसे भी बिना हँसे न रहा गया। रतन की भौंहें नहीं चढ़ीं, उसने गम्भीर आवाज में कहा, “मैं बाजार जा रहा हूँ माँ, किसन ने चाय का पानी चढ़ा दिया है।” और वह चला गया। राजलक्ष्मी ने कहा, “शायद रतन की आनन्द से नहीं बनती?”

आनन्द ने कहा, “हाँ, पर मैं उसे दोष नहीं दे सकता दीदी। वह आपका हितैषी है- ऐरों-गैरों को नहीं घुसने देना चाहता। पर आज उससे मेल कर लेना होगा, नहीं तो खाना अच्छा नहीं मिलेगा। बहुत दिनों का भूखा हूँ।”

राजलक्ष्मी ने जल्दी से बरामदे में जाकर कहा, “रतन और कुछ रुपये ले जा भाई, क्योंकि एक बड़ी-सी रुई मछली लानी होगी।” लौटकर कहा, “मुँह-हाथ धो लो भाई, मैं चाय तैयार कर लाती हूँ।” कहकर वह नीचे चली गयी।

आनन्द ने कहा, “दादा, एकाएक तलबी क्यों हुई?”

“इसकी कैफियत क्या मैं दूँगा आनन्द?”

आनन्द ने हँसते हुए कहा, “देखता हूँ कि दादा का अब भी वही भाव है- नाराजगी दूर नहीं हुई है। फिर कहीं लापता हो जाने का इरादा तो नहीं है? उस दफा गंगामाटी में कैसी झंझट में डाल दिया था! इधर सारे देश के लोगों का निमन्त्रण और उधर मकान का मालिक लापता! बीच में मैं- नया आदमी -इधर दौड़ूं, उधर दौड़ूं, दीदी पैर फैलाकर रोने बैठ गयीं, रतन ने लोगों को भगाने का उद्योग किया- कैसी विपत्ति थी! वाह दादा, आप खूब हैं!”

मैं भी हँस पड़ा, बोला, “अबकी बार नाराजगी दूर हो गयी है। डरो मत।”

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